आत्महत्यारोकथामदिवस

आज आत्महत्यारोकथाम दिवस है। जी हाँ बिल्कुल ठीक सुना आपने !! जिस तरह और भी अनेक दिवस आते है और आ आकर चले जाते है। फुरसत कहाँ है साहब !! हर दिन तो कोई ना कोई दिवस है। नही चलो मान लेते हैं कम से कम सरकारी छुट्टी भी होती तो कैलेण्डर में तारीख को गोला मार के रख लेते। फिर उस दिन का इन्तजार करते, और सारे बचे-खुचे कार्यों की सूची बना कर रखते। कुछ ऐसा ही करते हैं ना साहब हमसभी !! क्या करें और कोई उपाय भी तो नही, हफ्ते के बाकी दिन तो आफिस, धंधे में झक मारते रहते हैं। फिर कभी कभार कहीं गलती से यदि भगवान हमारी तपस्या से प्रसन्न हो कर एक दिन का अवकास वरदान में दे भी दें तो उस पर भी किसी ना किसी आत्मीय जन (पत्नी, बच्चे, माता या पिता) की नजर लग ही जाती है और फिर हमारा वो अधिकार छिन जाता है जिसे हमें हमारे संविधान ने दिया है। वो है "स्वतंत्रता का अधिकार"। आज मैं इस "आत्महत्यारोकथाम दिवस" पर अचानक स्वतंत्रता दिवस की बाते क्यूँ करने लगा? क्या करें साहब !! हमारी आजादी कहीं खो गई है साहब!! जो सूक्मदर्शी से ढूढने से भी नजर नही आ रही।
माँ-बाप जो बचपन से अपने बच्चे के हर जरुरत हर सुख दुख का इतना ध्यान रखते है किन्तु जिस दिन बच्चे में थोथा ग्यान (ग्यान का अहंकार)आ जाता है। फिर उसे अपने उसी माँ बाप की बातें दकियानुसी मतलब बेकार की लगने लगती है बेवजह लगने लगती है, वो बातें महज बातें नही होती साहब !! उन सफेद बालों में, झुर्रीदार बिना दाँत वाले पोपले गालों मे, उन ओंझल सी दृष्टि लिए पिचकी आखों में जीवन की हर मुश्किल हल होता है, झरने के पानी सा निर्मल, सदैव निरन्तर वहने वाला शीतल आशीर्वाद होता है, पर हम उसे समझ नही पाते। और जीवन की उलझनों मे उलझ कर रह जाते हैं। और फिर कोई रास्ता नही मिलने पर उस गलत रास्ते को चुन लेते है जो कभी मंजिल तक पहुचा ही नही सकती।

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